आध्यात्मिक >> मृत्यु के बाद मृत्यु के बादशिवराम कारंत
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भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित प्रख्यात उपन्यासकार शिवराम कारंत का कन्नड़ से अनूदित उपन्यास...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित प्रख्यात उपन्यासकार शिवराम कारंत
का कन्नड़ से अनूदित प्रस्तुत उपन्यास मृत्यु के बाद उपन्यासकार के गहन
जीवन-दर्शन का परिचय देता है। इस उपन्यास में लेखक ने यह ढूंढने का प्रयास
किया है कि मानव जीवन में अंतत: क्या बचा रहेगा। जीवन के बाद शेष रह जाने
वाली चीजें केवल स्मृतियाँ ही हैं। राह चलने वाला जैसे अपने पैरों के
निशान छोड़ता जाता है, इसी तरह एक व्यक्ति के जीवन का लेखा-जोखा इस बात से
होता है कि वह औरों पर कितना प्रभाव अंकित करता है। इस उपन्यास में लेखक
ने मानवीय संपर्क से जुड़े अच्छे-बुरे प्रभावों को मिलाकर मनुष्य जीवन को
पहचानने और उसकी व्याख्या करने का सफलतम प्रयास किया है। दर्शन जैसे गूढ़
और कठिन विषय को कथात्मकता के रस में भिगोकर आर्कषण बनाने में यहाँ
उपन्यासकार को पूरी सफलता मिली है।
उपन्यासकार शिवराम कारंत उन थोड़े उपन्यासकारों में से हैं जो जीवन का अर्थ साहित्य साधना ही समझते हैं। अपने पूरे जीवन में इन्होंने साहित्य का सृजन ही नहीं किया बल्कि अपने सृजन को जीया है। इनके सृजन संसार का आयाम उपन्यास, कथा, लेख से लेकर बाल साहित्य लेखन, विज्ञान लेखन, कला, समीक्षा, लोक कथा, नृत्य-नाटक, यात्रा-संस्मरण, जीवनी आदि तक फैला हुआ है। इस बहुमुखी प्रतिभा के धनी लेखक में बौद्धिकता और कल्पना का अद्भुत संयोग है, जो प्रकृति, जीवन और कला के एक-एक तंतु के प्रति संवेदनशील है। कई पुरस्कारों से सम्मानित शिवराम कारंत की कुछ महत्वपूर्ण कृतियाँ है- चोमाण्डुडी, मराली मनाइज, मकज्जिया कनासुगलु। शिवराम कारंत के साहित्य से रू-ब-रू होना एक महान जीवन दर्शन से परिचित होना है।
उपन्यासकार शिवराम कारंत उन थोड़े उपन्यासकारों में से हैं जो जीवन का अर्थ साहित्य साधना ही समझते हैं। अपने पूरे जीवन में इन्होंने साहित्य का सृजन ही नहीं किया बल्कि अपने सृजन को जीया है। इनके सृजन संसार का आयाम उपन्यास, कथा, लेख से लेकर बाल साहित्य लेखन, विज्ञान लेखन, कला, समीक्षा, लोक कथा, नृत्य-नाटक, यात्रा-संस्मरण, जीवनी आदि तक फैला हुआ है। इस बहुमुखी प्रतिभा के धनी लेखक में बौद्धिकता और कल्पना का अद्भुत संयोग है, जो प्रकृति, जीवन और कला के एक-एक तंतु के प्रति संवेदनशील है। कई पुरस्कारों से सम्मानित शिवराम कारंत की कुछ महत्वपूर्ण कृतियाँ है- चोमाण्डुडी, मराली मनाइज, मकज्जिया कनासुगलु। शिवराम कारंत के साहित्य से रू-ब-रू होना एक महान जीवन दर्शन से परिचित होना है।
भूमिका
उपन्यास तो लिख रहा हूँ, लेकिन उसकी भूमिका लिखने में उदासीन-सा हूं। जिस
बात को एक पूरा उपन्यास न समझा सके, वह मात्रा भूमिका के द्वारा कैसे
समझाई जा सकती है ? उपन्यास लिखने के उद्देश्य को अगर स्वयं में उपन्यास
ही न बता पाए, तो उसे लिखने का लाभ ही क्या है ? ऐसे ही कारणों से मैं
भूमिका के प्रति अनमना हूं।
फिर भी कुछेक बातें और कहने की इच्छा कभी-कभार होती है, सो लिखने का लोभ संवरण नहीं कर पाता हूं।
मानव-जीवन में अंततः क्या बचा रहेगा, इसे ढूंढ़ते देखने के प्रयत्न की दृष्टि उपन्यास में है। जीवन के बाद शेष रह जाने वाली चीजें केवल स्मृतियां ही है। राह चलने वाला जैसे अपने पैरों के निशान छोड़ता हुआ चला जाता है, शायद उसी तरह व्यतीत जीवन का लेखा-जोखा इस बात से निर्धारित होता है कि उसने औरों पर क्या और कितना प्रभाव अंकित किया है। हर राहगीर यही सोचता हुआ आगे बढ़ता है कि उसका जीवन दूसरों पर और गहरी छाप छोड़ जाएगा। लेकिन ऐसा कर सकने का भाग्य कितनों को मिलता है ! इस उपन्यास के यशवंतजी सरीखे लोग संसार में जनमते हैं, जीते हैं, और मर जाते हैं। अपने संपर्क में आए कुछ लोगों के लिए वे हितकर और आत्मीय होते हैं, और कुछ के लिए निरपेक्ष और अनस्तित्व। मानवीय संपर्क से उपजे हुए अच्छे-बुरे प्रभावों को मिलाकर मैंने यशवंतजी के जीवन को पहचानने की कोशिश की है। यह उनके छोड़े हुए पग-चिह्नों का पीछा करने जैसा काम है।
वह राहगीर थे, और थोड़े-से परिचय के जरिए उनके चिह्नों की खोज में निकला हुआ। उनके जीवन को मैंने अपने विवेक से ही मापने का प्रयत्न किया है। मैं तो मात्र निरीक्षक की हैसियत से इस उपन्यास में हूं। जैसे ‘बेट्ट जीव’ उपन्यास में मैं जिस भूमिका में था, उसे एक बार और इसमें भी निबाह रहा हूं। वह एक तरह की थी। यह एक तरह की है। वह जीवन-काल की सचाई था, यह मृत्यु के बाद खोजी गई सचाई है।
कल दूसरे लोग हमारे जीवन को भी इसी तरह देख सकेंगे, जबकि हमारी मृत्यु हो चुकी होगी। वे शायद इसे समझने का प्रयत्न भी करें। और वे समझे-न समझें, इतना तो तय है कि हमारे जीवन की भाव-भंगिमाएं चारों ओर के जीवन पर व्यापक असर छोड़ती हैं। जैसे हजारों प्रभावों में हमारा प्रभाव भी शामिल हो जाता है। मृत्यु के मुख में समा जानेवाला कोई भी जीवन व्यर्थ नहीं होता। लेकिन मन यह भी कहता है कि जीवन को जितना हो सके बनाने का प्रयत्न करते रहना ही मानव का धर्म है।
उपन्यास छप जाने के बाद उसे दस-बारह मित्रों को भेजने की आदत मैंने बना ली है। वे उसे पढ़ते हैं; हालांकि मेरा आग्रह नहीं होता कि वे सभी अवश्य पढ़ें। कुछ मित्र जरूर पढ़ते हैं और अपनी राय से मुझे अवगत करा देते हैं। कुछ मित्र ऐसे भी हैं, जो मिलने पर अपनी धारणा और आपत्तियाँ बताते हैं। मेरे युवा मित्र बी.ए. तुंग ऐसे ही स्वभाव के थे। यह उपन्यास लिखने के दौरान एक पत्र में उन्हें लिखा था।
‘‘मन में आज तीव्र वेदना और छटपटाहट महसूस कर रहा हूं। कुछ दूसरे अपरिचित प्रसंग भी इन्हीं दिनों सामने आए हैं, और वे यद्यपि संतोषजनक हैं, फिर भी मुझे उनकी व्यथा ने घेर लिया है। इस उपन्यास की मैं रचना में लगा हूं—शायद उससे कुछ मुक्ति मिल सके। सिर्फ यही एक संतोष है।’’
उपन्यास पूरा किया और छपने भेज दिया। सोचा था, गहरी पीड़ा के क्षणों में रची गई यह कृति जब मित्र को भेजूंगा, तो पढ़कर उन्हें जाने कैसे-कैसे कौतूहल और संदेह उमड़ उठेंगे। लेकिन वह दिन कभी नहीं आया। प्रेस से बाहर आने पर उपन्यास को काफी देर हो गई। और, इसी बीच मेरे मित्र तुंग एक दुर्घटना में चल बसे। उस अंतरंग मैत्री की गहन स्मृति को यह उपन्यास समर्पित करने का विचार मन में आया। वह उम्र में मुझसे कम-से-कम बीस वर्ष छोटे थे। पहले कभी सोचा नहीं था कि यह पुस्तक उनकी मृत्यु की स्मृति बनेगी।
तुंग बाक्कुदुर में पैदा हुए थे, जो कि मेरे जन्म-स्थान से पांच ही मील की दूरी पर है। लेकिन हमारा परिचय और स्नेह-संबंध सिर्फ सात-आठ वर्ष पुराना था। 1951 के आम चुनावों के दौरान वह जब प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया के संवाददाता की हैसियत से हमारे जिले में आए, तभी मेरा उनसे परिचय हुआ था।
और यह अल्प परिचय बढ़ते-बढ़ते गहरे स्नेह-भरी अंतरंगता में बदल गया। तुंग सामान्य इकहरे और गौर शरीर के थे। शरारत-भरी हंसी हमेशा चेहरे पर चमकती थी। उनकी मुस्कराहट और चमचमाती आंखें उनके समृद्ध विवेक की परिचायक लगती थीं। उनकी बुद्धि जितनी गहन और समृद्ध थी, उतनी ही उनकी वाणी भी।
प्रखर विचारशीलता के साथा-साथ उनका खुला और उदार हृदय उनके सहज स्वभाव की विशिष्टता थी। अपनी साहसिक प्रवृत्तियों के कारण इतनी उम्र में ही उन्होंने पत्र-पत्रिकाओं और पी.टी आई. जैसी समाचार-संस्थाओं में पर्याप्त ख्याति हासिल कर ली थी। वह एक रोशन व्यक्ति हो गए थे। उनके स्नेह-संपर्कों का दायरा बहुत बड़ा था। पाकिस्तान में दो-तीन वर्ष तक पी.टी.आई. के संवाददाता के रूप में रह चुके थे। कहना चाहिए कि भारत सरकार उनकी कार्यकुशलता से प्रसन्न थी। अय्यूब खां के सर्वेसर्वा होने का समाचार सबसे पहले उन्होंने ही प्रकाशित किया था; उन्होंने ही सर्वप्रथम यह खबर भी दी थी कि पांडिचेरी के क्रांति समर में आश्रम का कितना हाथ था। अपनी मृत्यु से दो-एक महीने पहले वह नेफा जाना चाह रहा थे। लेकिन असम की बस-दुर्घटना ने उनका जीवन छीन लिया। उनकी आकस्मिक मौत पर आकाशवाणी और सूचना एवं प्रसारण मंत्री डॉ. केसकर ने जो संवेदना-संदेश प्रसारित किए, वे नितांत सहज और उन जैसे व्यक्ति के लिए सर्वथा उपयुक्त थे।
बिल्कुल गरीब परिवार में पैदा हुए थे वह। छुटपन में ही पिता का साया उठ गया था। फिर मां की ममता भी खो दी और अनाथ जीवन बिताने लगे। सिर्फ एस.एस.एल.सी. (S.S.L.C.) तक पढ़ाई कर सके। धैर्य और लगन ने उन्हें जीवन-पथ पर अग्रसर किया। धन या अहंकार ने उन्हें कभी नहीं ललचाया। मानव समाज के कोनों में गहराई से झांककर जीवन को तलाशते जाने का समासिकता ही उनका ध्येय थी।
जिस तरह मृत्यु के बाद में यशवंत जी की शेष स्मृतियों की अनुगूंज है, शायद उसी तरह भी मुझ समेत अनेक मित्रों के मन में आते अमिट चिह्न और जीवंत बिंब की शक्ल में सुरक्षित रख गए हैं।
आज हम उनसे बोल नहीं सकते हैं, उनकी स्मृति, उनकी आत्मा जैसे हमारे भीतर उनसे बातचीत करती रहती है।
फिर भी कुछेक बातें और कहने की इच्छा कभी-कभार होती है, सो लिखने का लोभ संवरण नहीं कर पाता हूं।
मानव-जीवन में अंततः क्या बचा रहेगा, इसे ढूंढ़ते देखने के प्रयत्न की दृष्टि उपन्यास में है। जीवन के बाद शेष रह जाने वाली चीजें केवल स्मृतियां ही है। राह चलने वाला जैसे अपने पैरों के निशान छोड़ता हुआ चला जाता है, शायद उसी तरह व्यतीत जीवन का लेखा-जोखा इस बात से निर्धारित होता है कि उसने औरों पर क्या और कितना प्रभाव अंकित किया है। हर राहगीर यही सोचता हुआ आगे बढ़ता है कि उसका जीवन दूसरों पर और गहरी छाप छोड़ जाएगा। लेकिन ऐसा कर सकने का भाग्य कितनों को मिलता है ! इस उपन्यास के यशवंतजी सरीखे लोग संसार में जनमते हैं, जीते हैं, और मर जाते हैं। अपने संपर्क में आए कुछ लोगों के लिए वे हितकर और आत्मीय होते हैं, और कुछ के लिए निरपेक्ष और अनस्तित्व। मानवीय संपर्क से उपजे हुए अच्छे-बुरे प्रभावों को मिलाकर मैंने यशवंतजी के जीवन को पहचानने की कोशिश की है। यह उनके छोड़े हुए पग-चिह्नों का पीछा करने जैसा काम है।
वह राहगीर थे, और थोड़े-से परिचय के जरिए उनके चिह्नों की खोज में निकला हुआ। उनके जीवन को मैंने अपने विवेक से ही मापने का प्रयत्न किया है। मैं तो मात्र निरीक्षक की हैसियत से इस उपन्यास में हूं। जैसे ‘बेट्ट जीव’ उपन्यास में मैं जिस भूमिका में था, उसे एक बार और इसमें भी निबाह रहा हूं। वह एक तरह की थी। यह एक तरह की है। वह जीवन-काल की सचाई था, यह मृत्यु के बाद खोजी गई सचाई है।
कल दूसरे लोग हमारे जीवन को भी इसी तरह देख सकेंगे, जबकि हमारी मृत्यु हो चुकी होगी। वे शायद इसे समझने का प्रयत्न भी करें। और वे समझे-न समझें, इतना तो तय है कि हमारे जीवन की भाव-भंगिमाएं चारों ओर के जीवन पर व्यापक असर छोड़ती हैं। जैसे हजारों प्रभावों में हमारा प्रभाव भी शामिल हो जाता है। मृत्यु के मुख में समा जानेवाला कोई भी जीवन व्यर्थ नहीं होता। लेकिन मन यह भी कहता है कि जीवन को जितना हो सके बनाने का प्रयत्न करते रहना ही मानव का धर्म है।
उपन्यास छप जाने के बाद उसे दस-बारह मित्रों को भेजने की आदत मैंने बना ली है। वे उसे पढ़ते हैं; हालांकि मेरा आग्रह नहीं होता कि वे सभी अवश्य पढ़ें। कुछ मित्र जरूर पढ़ते हैं और अपनी राय से मुझे अवगत करा देते हैं। कुछ मित्र ऐसे भी हैं, जो मिलने पर अपनी धारणा और आपत्तियाँ बताते हैं। मेरे युवा मित्र बी.ए. तुंग ऐसे ही स्वभाव के थे। यह उपन्यास लिखने के दौरान एक पत्र में उन्हें लिखा था।
‘‘मन में आज तीव्र वेदना और छटपटाहट महसूस कर रहा हूं। कुछ दूसरे अपरिचित प्रसंग भी इन्हीं दिनों सामने आए हैं, और वे यद्यपि संतोषजनक हैं, फिर भी मुझे उनकी व्यथा ने घेर लिया है। इस उपन्यास की मैं रचना में लगा हूं—शायद उससे कुछ मुक्ति मिल सके। सिर्फ यही एक संतोष है।’’
उपन्यास पूरा किया और छपने भेज दिया। सोचा था, गहरी पीड़ा के क्षणों में रची गई यह कृति जब मित्र को भेजूंगा, तो पढ़कर उन्हें जाने कैसे-कैसे कौतूहल और संदेह उमड़ उठेंगे। लेकिन वह दिन कभी नहीं आया। प्रेस से बाहर आने पर उपन्यास को काफी देर हो गई। और, इसी बीच मेरे मित्र तुंग एक दुर्घटना में चल बसे। उस अंतरंग मैत्री की गहन स्मृति को यह उपन्यास समर्पित करने का विचार मन में आया। वह उम्र में मुझसे कम-से-कम बीस वर्ष छोटे थे। पहले कभी सोचा नहीं था कि यह पुस्तक उनकी मृत्यु की स्मृति बनेगी।
तुंग बाक्कुदुर में पैदा हुए थे, जो कि मेरे जन्म-स्थान से पांच ही मील की दूरी पर है। लेकिन हमारा परिचय और स्नेह-संबंध सिर्फ सात-आठ वर्ष पुराना था। 1951 के आम चुनावों के दौरान वह जब प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया के संवाददाता की हैसियत से हमारे जिले में आए, तभी मेरा उनसे परिचय हुआ था।
और यह अल्प परिचय बढ़ते-बढ़ते गहरे स्नेह-भरी अंतरंगता में बदल गया। तुंग सामान्य इकहरे और गौर शरीर के थे। शरारत-भरी हंसी हमेशा चेहरे पर चमकती थी। उनकी मुस्कराहट और चमचमाती आंखें उनके समृद्ध विवेक की परिचायक लगती थीं। उनकी बुद्धि जितनी गहन और समृद्ध थी, उतनी ही उनकी वाणी भी।
प्रखर विचारशीलता के साथा-साथ उनका खुला और उदार हृदय उनके सहज स्वभाव की विशिष्टता थी। अपनी साहसिक प्रवृत्तियों के कारण इतनी उम्र में ही उन्होंने पत्र-पत्रिकाओं और पी.टी आई. जैसी समाचार-संस्थाओं में पर्याप्त ख्याति हासिल कर ली थी। वह एक रोशन व्यक्ति हो गए थे। उनके स्नेह-संपर्कों का दायरा बहुत बड़ा था। पाकिस्तान में दो-तीन वर्ष तक पी.टी.आई. के संवाददाता के रूप में रह चुके थे। कहना चाहिए कि भारत सरकार उनकी कार्यकुशलता से प्रसन्न थी। अय्यूब खां के सर्वेसर्वा होने का समाचार सबसे पहले उन्होंने ही प्रकाशित किया था; उन्होंने ही सर्वप्रथम यह खबर भी दी थी कि पांडिचेरी के क्रांति समर में आश्रम का कितना हाथ था। अपनी मृत्यु से दो-एक महीने पहले वह नेफा जाना चाह रहा थे। लेकिन असम की बस-दुर्घटना ने उनका जीवन छीन लिया। उनकी आकस्मिक मौत पर आकाशवाणी और सूचना एवं प्रसारण मंत्री डॉ. केसकर ने जो संवेदना-संदेश प्रसारित किए, वे नितांत सहज और उन जैसे व्यक्ति के लिए सर्वथा उपयुक्त थे।
बिल्कुल गरीब परिवार में पैदा हुए थे वह। छुटपन में ही पिता का साया उठ गया था। फिर मां की ममता भी खो दी और अनाथ जीवन बिताने लगे। सिर्फ एस.एस.एल.सी. (S.S.L.C.) तक पढ़ाई कर सके। धैर्य और लगन ने उन्हें जीवन-पथ पर अग्रसर किया। धन या अहंकार ने उन्हें कभी नहीं ललचाया। मानव समाज के कोनों में गहराई से झांककर जीवन को तलाशते जाने का समासिकता ही उनका ध्येय थी।
जिस तरह मृत्यु के बाद में यशवंत जी की शेष स्मृतियों की अनुगूंज है, शायद उसी तरह भी मुझ समेत अनेक मित्रों के मन में आते अमिट चिह्न और जीवंत बिंब की शक्ल में सुरक्षित रख गए हैं।
आज हम उनसे बोल नहीं सकते हैं, उनकी स्मृति, उनकी आत्मा जैसे हमारे भीतर उनसे बातचीत करती रहती है।
29-1-1960
पुत्तूर, द.क.
पुत्तूर, द.क.
-शिवराम कारंत
एक
जीवन एक लंबे काल तक चलने वाली यात्रा है। उसकी शुरुआत के सात-आठ वर्ष तक
हम स्वयं से भी अनजान-अजनबी रहते हैं। वह अबूझ जीवन माता-पिता छोटे-बड़े
भाई और बहुतेरे सगे-संबंधियों के संपर्क में आता है। पराश्रय के बिना वह
शैशव विकसित नहीं हो पाता। फिर भी उन सारे शैशव-संदर्भों की स्मृति हमारे
भीतर बहुत कम बची रहती है। फिर शैशव बीत चुका होता है और घर या पाठशाला
में अपने हमजोलियों के साथ घूमना-खेलना शुरू हो जाता है। तब के मित्रों की
याद मन में अधिक बनी रहती है। लेकिन ये स्मृतियाँ भी तात्कालिक ही होती
हैं। विद्यार्थी-जीवन के बाहर आकर जब हम युवावस्था में प्रवेश करते हैं,
तब सुकोमल समृतियों से भरपूर होते हुए भी, आगे के सांसारिक झंझटों में कदम
रखने पर कितने मित्रों की स्मृति रह पाती है ! महज एक या दो, अधिक हुआ तो
दस-बारह।
अगली दुनिया एक दूसरी ही दुनिया होती है। जीवन के रंगमंच पर एक न्यारी और अपरिचित मित्रमंडली से हम आ जुड़ते हैं, कुछ लोग हमारे हितैषी और सहायक होते हैं, और कुछ हमें धकियाते हुए चले जाते हैं, लेकिन जीवन में गहरी स्मृति-रेखाएं खींच देने वालों की संख्या सदैव कम होती है। फिर बुढ़ापे में पहुंचने पर पुरानी स्मृतियों का कोष प्रायः चुक जाता है। वृद्धावस्था हमें उन तमाम लोगों से काट देती है, जो कि हमारे समवयस्क नहीं हैं। हमारे सुख या दुख के हिस्सेदार लोगों की संख्या भी उंगली पर गिनने लायक रह जाती है। साठ-सत्तर वर्ष की जीवन-यात्रा में जिन लोगों से हमारी मुलाकात हुई, जिनके साथ हम घूमे-फिरे-खेले, दुनियावी कामों और व्यावहारिकता के क्षेत्र में जिनसे संपर्क जुड़ा और टूटा, उन्हें अगर गिना जाए तो संख्या हजारों में बैठेगी। इस अपरिचित परिचय के बावजूद हम एक छोटा और अज्ञात मनुष्य बनकर दुनिया से कूच कर जाते हैं। कोई भाग्याशाली हो, तो उसके दस-बारह मित्र उसके अंत को याद करके ‘बेचारा ! चल बसा। इस उम्र में मौत के सिवा और क्या होता !’ कहेंगे और एक बूँद आंसू गिरा देंगे, या फिर आंसू बहाये बिना अपनी संवेदना प्रकट कर देंगे।
कितनी लंबी यात्रा है यह ! जाने कब शुरू हुई ! जाने कैसे-कैसे काम किए, और उनका फल हासिल किया ! कितना कमाया, कितना छोड़ा ? इस सबका हिसाब लगाया जाए तो सिर्फ घर-बार और कुछ रुपये-पैसे ही अंततः बचे रहते हैं। ‘चला गया न वह ! उसकी मृत्यु से हमारे जीवन में कुछ कमी जैसी आ गई है।’ लोगों के मन में ऐसा प्रभाव छोड़कर जा सकने का भाग्य कितनों को मिल पाता है !
ऐसी है यह जीवन-यात्रा। उस विराट नाटक का एक क्षणिक दृश्य है: गांव-गांव में भटकते रहने की यात्रा। यानी एक वास्तविक यात्रा। बस, गाड़ी या जहाज में हम किसी-न-किसी काम के लिए घूमते ही रहते हैं। अपनी जगहें बदल कर दूसरी जगहों में भी जाते हैं—कार्य की तलाश में, सुख और विलासिता की तलाश में। हम, आप, सब लोग। कुछ घंटों की बस-यात्रा के अलावा, रेलगाड़ी या जहाज में एक-दो बार हम सबने सफर किया ही होगा। उस समय के बाहर के स्थायी संसार को कुछ भूल जाते हैं। हम तब चलते रहते हैं न ! तो हम गाड़ी या जहाज में बैठे हैं, सैकड़ों-हजारों मील यात्रा करने वाले और लोग भी उसमें भरे हैं। गाड़ी या जहाज में सवार हो जाने के बाद उससे उतरने तक वही हमारा घर है। गाड़ी में अगर पहले से लोग ठुंसे हों, जो सामने आसन फैलाकर बैठे हुए हमारा चेहरा ताकते रहते हैं। कुछ यात्री हो जाने पर भी बिस्तर वैसे ही बिछाए हुए और नींद का बहाना किए हुए लेटे रहते हैं। ‘आने वालों को भी थोड़ी जगह दे दें’ –ऐसा बहुत कम लोग सोचते हैं।
और अगर जगह न हुई, तो देने का कोई सवाल ही नहीं। कई बार घंटों खड़े-खड़े जाना पड़ता है। ऐसी स्थिति में मानसिक उद्विगन्ता और उत्तेजना हो आती है। गाड़ी में बैठे मुसाफिरों पर क्रोध आने लगता है, जैसे कि हजारों पशु-पक्षी एक ही जगह एकत्रित कर दिए गए हों। तो साथियों से अपनी पसंद-नापसंद की बातें करते हुए रेल-यात्रा के सारे कष्ट भुलाए जा सकते हैं। कुछ लोग यात्रा में अपरिचितों से भी बातें करके हो घंटे में ही सारे मुसाफिरों को अपने पड़ोसी बंधु की तरह मानकर मजे से समय काट लेते हैं और एक नमस्कार के साथ उतर जाते हैं। उसके बाद कहां ये और कहां वे !
यायावरी जिनके जीवन का अंग बन गई है, उनमें भी कई तरह के लोग होते हैं। इंग्लैंड जैसे देश में रेलगाड़ी से सफर करना कई विचित्रताओं का अनुभव करना है। वहां एक आदमी दूसरे आदमी की जगह पर अपना हक नहीं जताता। जिन्हें जगह मिल जाती है, वे बैठे रहते हैं। दस-बारह घंटे पास-पास बैठकर वे यात्रा करते हैं। कोई किताब हो तो उसे पढ़ते रहते हैं, अन्यथा मूक प्राणियों की भांति बैठे रहेंगे। ‘आप कहां के रहने वाले हैं ?’ ‘कहां जा रहे हैं, क्या काम करते हैं ?’ ‘कितना कमा लेते हैं ?’ जैसे सवाल वे कभी नहीं पूछते। आप सिर्फ अपने लिए हैं। गाड़ी सफर करने के लिए है, मित्रता बढ़ाने के लिए नहीं। सही हो या गलत, वहां के लोग इसी तरह सोचते हैं।
अगली दुनिया एक दूसरी ही दुनिया होती है। जीवन के रंगमंच पर एक न्यारी और अपरिचित मित्रमंडली से हम आ जुड़ते हैं, कुछ लोग हमारे हितैषी और सहायक होते हैं, और कुछ हमें धकियाते हुए चले जाते हैं, लेकिन जीवन में गहरी स्मृति-रेखाएं खींच देने वालों की संख्या सदैव कम होती है। फिर बुढ़ापे में पहुंचने पर पुरानी स्मृतियों का कोष प्रायः चुक जाता है। वृद्धावस्था हमें उन तमाम लोगों से काट देती है, जो कि हमारे समवयस्क नहीं हैं। हमारे सुख या दुख के हिस्सेदार लोगों की संख्या भी उंगली पर गिनने लायक रह जाती है। साठ-सत्तर वर्ष की जीवन-यात्रा में जिन लोगों से हमारी मुलाकात हुई, जिनके साथ हम घूमे-फिरे-खेले, दुनियावी कामों और व्यावहारिकता के क्षेत्र में जिनसे संपर्क जुड़ा और टूटा, उन्हें अगर गिना जाए तो संख्या हजारों में बैठेगी। इस अपरिचित परिचय के बावजूद हम एक छोटा और अज्ञात मनुष्य बनकर दुनिया से कूच कर जाते हैं। कोई भाग्याशाली हो, तो उसके दस-बारह मित्र उसके अंत को याद करके ‘बेचारा ! चल बसा। इस उम्र में मौत के सिवा और क्या होता !’ कहेंगे और एक बूँद आंसू गिरा देंगे, या फिर आंसू बहाये बिना अपनी संवेदना प्रकट कर देंगे।
कितनी लंबी यात्रा है यह ! जाने कब शुरू हुई ! जाने कैसे-कैसे काम किए, और उनका फल हासिल किया ! कितना कमाया, कितना छोड़ा ? इस सबका हिसाब लगाया जाए तो सिर्फ घर-बार और कुछ रुपये-पैसे ही अंततः बचे रहते हैं। ‘चला गया न वह ! उसकी मृत्यु से हमारे जीवन में कुछ कमी जैसी आ गई है।’ लोगों के मन में ऐसा प्रभाव छोड़कर जा सकने का भाग्य कितनों को मिल पाता है !
ऐसी है यह जीवन-यात्रा। उस विराट नाटक का एक क्षणिक दृश्य है: गांव-गांव में भटकते रहने की यात्रा। यानी एक वास्तविक यात्रा। बस, गाड़ी या जहाज में हम किसी-न-किसी काम के लिए घूमते ही रहते हैं। अपनी जगहें बदल कर दूसरी जगहों में भी जाते हैं—कार्य की तलाश में, सुख और विलासिता की तलाश में। हम, आप, सब लोग। कुछ घंटों की बस-यात्रा के अलावा, रेलगाड़ी या जहाज में एक-दो बार हम सबने सफर किया ही होगा। उस समय के बाहर के स्थायी संसार को कुछ भूल जाते हैं। हम तब चलते रहते हैं न ! तो हम गाड़ी या जहाज में बैठे हैं, सैकड़ों-हजारों मील यात्रा करने वाले और लोग भी उसमें भरे हैं। गाड़ी या जहाज में सवार हो जाने के बाद उससे उतरने तक वही हमारा घर है। गाड़ी में अगर पहले से लोग ठुंसे हों, जो सामने आसन फैलाकर बैठे हुए हमारा चेहरा ताकते रहते हैं। कुछ यात्री हो जाने पर भी बिस्तर वैसे ही बिछाए हुए और नींद का बहाना किए हुए लेटे रहते हैं। ‘आने वालों को भी थोड़ी जगह दे दें’ –ऐसा बहुत कम लोग सोचते हैं।
और अगर जगह न हुई, तो देने का कोई सवाल ही नहीं। कई बार घंटों खड़े-खड़े जाना पड़ता है। ऐसी स्थिति में मानसिक उद्विगन्ता और उत्तेजना हो आती है। गाड़ी में बैठे मुसाफिरों पर क्रोध आने लगता है, जैसे कि हजारों पशु-पक्षी एक ही जगह एकत्रित कर दिए गए हों। तो साथियों से अपनी पसंद-नापसंद की बातें करते हुए रेल-यात्रा के सारे कष्ट भुलाए जा सकते हैं। कुछ लोग यात्रा में अपरिचितों से भी बातें करके हो घंटे में ही सारे मुसाफिरों को अपने पड़ोसी बंधु की तरह मानकर मजे से समय काट लेते हैं और एक नमस्कार के साथ उतर जाते हैं। उसके बाद कहां ये और कहां वे !
यायावरी जिनके जीवन का अंग बन गई है, उनमें भी कई तरह के लोग होते हैं। इंग्लैंड जैसे देश में रेलगाड़ी से सफर करना कई विचित्रताओं का अनुभव करना है। वहां एक आदमी दूसरे आदमी की जगह पर अपना हक नहीं जताता। जिन्हें जगह मिल जाती है, वे बैठे रहते हैं। दस-बारह घंटे पास-पास बैठकर वे यात्रा करते हैं। कोई किताब हो तो उसे पढ़ते रहते हैं, अन्यथा मूक प्राणियों की भांति बैठे रहेंगे। ‘आप कहां के रहने वाले हैं ?’ ‘कहां जा रहे हैं, क्या काम करते हैं ?’ ‘कितना कमा लेते हैं ?’ जैसे सवाल वे कभी नहीं पूछते। आप सिर्फ अपने लिए हैं। गाड़ी सफर करने के लिए है, मित्रता बढ़ाने के लिए नहीं। सही हो या गलत, वहां के लोग इसी तरह सोचते हैं।
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